योगी की मेहनत पर भारी पड़ रही सिस्टम की खामियां 

लखनऊ। कोरोना महामारी से निपटने के लिए देश में क्या कदम उठाए जा रहे हैं, इसको लेकर केन्द्र और तमाम राज्यों की सरकारों के ‘मुखिया’ अक्सर इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया के सामने बड़े-बड़े दावे करते हुए दिख जाते हैं, जो सुनने में जितने अच्छे लगते हैं,जमीनी हकीकत उसके बिल्कुल उलट होती है। अगर सभी राज्य सरकारों द्वारा ईमानदारी से अपना काम किया जाता तो कुछ राज्यों में कोरोना से निपटने के लिए किसी राज्य में बेहतर और कुछ में बद से बदत्तर हालात देखने को नहीं मिलते। महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश इसकी सबसे बड़ी बानगी हैं। एक तरफ उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली महाराष्ट्र सरकार अपनी जनता से लाॅक डाउन तक का पालन नहीं करा पा रही है। महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार अंतर्विरोध के चलते कोरोना महामारी के समय भी पंगु बनी हुई है। वहीं दूसरी तरफ योगी सरकार कोरोना संक्रमण फैलने से रोकने के लिए पूरी सख्ती के साथ पेश आ रही है। योगी हर मोर्चे पर सक्रिय हैं। यदि योगी को उम्मीद के अनुसार स्वास्थ्य कर्मियों का सहयोग भी मिल जाता तो यूपी में हालात और भी बेहतर हो सकते थे,लेकिन लाल फीताशाही और शासन-प्रशासन द्वारा स्वास्थ्य, खाद्य तथा आपूर्ति आदि विभागों के कर्मियों की जिम्मेदारी तय करने में लापरवाही के चलते मुश्किलें बढ़ भी रही हैं। स्थिति यह है कि चिकित्सकों के कंधो पर कोरोना पीड़ितों का इलाज करने से लेकर अगर किसी कोरोना पीड़ित की मौत हो जाती है तो उसका अंतिम संस्कार तक करने की पूरी जिम्मेदारी आ जाती है। डाक्टरों का सहयोग करने के लिए कोई आगे नहीं आता है।



दरअसल, कोरोना महामारी से पहले सरकारी अस्पतालों में आमतौर पर मरीज की तीमारदारी करने वाले परिवार के सदस्य ही मरीज की देखभाल के क्रम में ‘केयर टेकर’ के रूप में पूरी जिम्मेदारी संभाल लिया करते थे,जिसके चलते अस्पतालों वार्ड बाॅय, स्वीपर यहां तक की नर्सिंग स्टाफ तक अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ लेता था और कभी इस पर कोई खास चर्चा भी नहीं होती थी। सरकारी अस्पतालों में मरीज को भर्ती कराने, जांच के लिए इधर से उधर स्ट्रेचर नहीं मिलने पर मरीज को कंधे पर लादकर इधर से उधर भटकते हुए देखना आम दृश्य होता है। मरीज को लैट्रिन-बाथरूम भी मरीज के घर वालों को ही कराना पड़ती है। अगर किसी मरीज की मौत हो जाती तो उसे कपड़े में पैक करने का काम भी मरीज के साथ वालों को ही कराना पड़ता था,लेकिन कोरोना ने हालात बिल्कुल बदल दिए हैं। अब किसी मरीज के कोरोना पाॅजिटिव होने का पता चलता है तो सबसे पहले मरीज के साथ वाले ही किनारा कर लेते हैं। ऐसे में उन अस्पताल कर्मियों से यह उम्मीद बेईमानी हो जाती है कि वह कोरोना काल में अपना काम पूरी जिम्मेदारी से करेंगे। आखिर कोरोना छूत की बीमारी तो है ही। इसी लिए तो परिवार वालों के साथ-साथी सरकारी कर्मचारी भी अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ लेते हैं। डाक्टरों के पास अपने अधीनस्थ काम करने वालों के खिलाफ कार्रवाई करने का अधिकार सीमित होने के कारण चिकित्सक स्वयं ही पूरी तरह मोर्चा संभालने को मजबूर हो जाते है,जिसके चलते डाक्टर मरीज को सही इलाज नहीं मुहैया करा पाते हैं।  
 


इसी तरह से भले ही सरकार बड़े-बड़े दावे करे,लेकिन सरकारी अस्पतालों में कोरोना से निपटने के लिए जरूरी किट-मास्क आदि की भी काफी कमी है। कई सरकारी अस्पतालों के स्टोर में में ‘एन-95 मास्क नॉट अवेलेबल इन स्टोेर’ का नोटिस चस्पा देखा जा सकता है। कोरोना वायरस से सीधे जंग लड़ रहे कोरोना योद्धाओं को मास्क तक नसीब नहीं हो रहे हैं। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि धरती के भगवान कहे जाने वाले डॉक्टर किन मुश्किल हालातों के बीच काम करने को मजबूर हैं। मास्क की कमी डॉक्टरों के लिए जान का खतरा होने के साथ-साथ सरकारी सिस्टम और कोरोना महामारी से निपटने के लिए की गई सरकारी तैयारियों की भी पोल खोल रही है। सूत्रों के मुताबिक कोरोना संक्रमितों का इलाज कर रहे डॉक्टर एक ही पीपीई किट और मास्क को सात दिन तक पहनना पड़ रहा है। ऐसे में डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों के कोरोना संक्रमित होने का खतरा लगातार बना हुआ है। कोविड-19 का इलाज कर रहे एक चिकित्सक ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि कोविड-19 के मरीजों का इलाज कर रहे चिकित्सकों को एक ही पीपीई किट और मास्क को मजबूरन एक सप्ताह तक इस्तेमाल करना पड़ रहा है। इसका विरोध करने और इस तरह की बात लीक करने पर उनके खिलाफ कार्रवाई की चेतावनी दी जाती है। 



    
सिस्टम में भी कई खामियां हैं,जो कोरोना का बढ़ावा देने का कारण बनते हैं। सिस्टम की खामी को ऐसे समझा जा सकता है। कोविड-19 वार्ड में पॉजिटिव मरीजों का इलाज के दौरान चिकित्सक मरीज की एडमिट फाइल में नोट डालता है। उस रजिस्टर को नर्सिंग स्टाफ उठाकर ले जाता है। उस फाइल को फिर से ऑनलाइन डाटा एंट्री के लिए डाटा ऑपरेटर ने यूज किया। फिर वही फाइल दोबारा मरीज के बेड पर पहुंच जाती है। ऐसे में कोरोना मरीज की फाइल डॉक्टर समेत कई लोगों के संपर्क में आई। ऐसे में संक्रमण का खतरा बढ़ रहा है। दूसरा कारण डॉक्टर ओपीडी में जो मास्क पहनकर कई मरीजों को देखता है, उसमें से अगर कोई कोरोना संक्रमित होता है। और दूसरे मरीज के संपर्क में आता है तो उसमें संक्रमण फैलने का कारण बनता है। वहीं एक ही पीपीई किट को सात दिन तक पहनने से भी संक्रमण फैल रहा है। क्योंकि ये एयरटाइट होने के साथ ही सिंगल टाइम यूज है।



जिम्मेदारी अधिकारी कैसे सरकार की आंखों में धूल झोंकते हैं। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण तब दिखाई दिया जब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ लखनऊ के डॉ. राम मनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान का निरीक्षण करने पहुंचे। वहां एक स्टेªचर पर उनकी नजर पड़ी,जिस पर चादर नही बिछी हुई थी। इस पर योगी ने साथ चल रहे संस्थान के वरिष्ठ डाक्टर से नाराजगी जताई तो डाक्टर साहब ने समझा दिया कि स्ट्रेचर को कैमिकल से साफ किया जाता है। इस कारण यदि स्ट्रेचर पर चादर बिछाई जाती है तो वह कैमिकल के प्रभाव से गल जाती है। इस लिए चादर नहीं बिछाई जाती है,जबकि यह तर्क बेहद बेहूदा था,जिसको योगी के साथ चल रहे अधिकारियों ने भी अनदेखा कर दिया। वर्ना ऐसी खामियों के लिए जो अधिकारी/कर्मचारी जिम्मेदार था,उसके खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए थीं। इसी तरह से जब योगी लखनऊ के सिविल अस्पताल पहुंचे तो वहां भी कई खामियां देखने को मिलीं। कई मरीज बिना मास्क लगाए बैठे पाए गए। डाक्टर और कर्मचारी हाजिरी लगाने के बाद ड्यूटी से गायब थे। यह हाल लखनऊ के वीआईपी इलाकों के अस्पतालों का है तो फिर दूरदराज का माहौल कैसा होगा, इसकी कल्पना सहज की जा सकती है। हर जगह योगी पहुंच नहीं सकते हैं और अपने सांसदों/विधायकों आदि पर उन्हें(योगी) भरोसा नहीं है। रही बात अधिकारियों की वह तो वो ही तस्वीर दिखाते हैं जो उन्हें(अधिकारियों को) सुविधाजनक लगती है।  


रिपोर्ट-अजय कुमार