छठ पर्व बिहार का सबसे बड़ा त्योहार माना जाता है। यह मुख्य रूप से बिहारवासियों का पर्व माना जाता है। इसके पीछे कारण यह है कि इस पर्व की शुरुआत अंगराज कर्ण से माना जाता है। अंगप्रदेश वर्तमान में भागलपुर में है, जो बिहार में स्थित है। अंगराज कर्ण के विषय में कथा है कि, यह पाण्डवों की माता कुंती और सूर्य देवकी संतान है। कर्ण अपना आराध्य देव सूर्य देव को मानते थे। अपने राजा की सूर्य भक्ति से प्रभावित होकर अंगदेश के निवासी सूर्यदेव की पूजा-उपासना करने लगे। धीरे-धीरे सूर्य पूजा का विस्तार पूरे बिहार और पूर्वांचल क्षेत्र तक हो गया। यह भी मान्यता है कि छठ देवी सूर्य देव की बहन हैं।
पौराणिक ग्रंथों में भगवान श्रीराम के अयोध्या आने के बाद माता सीता के साथ मिलकर कार्तिक शुक्ल षष्ठी को सूर्योपासना की थी। इसके अलावा महाभारत काल में कुंती द्वारा विवाह से पूर्व सूर्योपासना से पुत्र की प्राप्ति से भी इसे जोड़ा जाता है। इसी कारण लोग सूर्यदेव की कृपा पाने के लिए भी कार्तिक शुक्ल षष्ठी को सूर्योपासना करते हैं।
चार दिवसीय और छठ पूजा का पर्व-
पहला दिन (नहाय-खाय) 31 अक्टूबर, गुरुवार
छठ पर्व बाद कार्तिक शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को नहाय-खाय के साथ होती है। इस दिन व्रत रखने वाले स्नान कर और नये कपड़े पहनकर लौकी आदि से तैयार शाकाहारी भोजन लेते हैं।
दूसरा दिन (खरना) एक नवंबर शुक्रवार
अगले दिन यानी पंचमी तिथि को व्रत रखा जाता है। इसे खरना (खाली पेट) कहा जाता है। इस दिन निर्जला उपवास रखा जाता है। शाम को चावल और गुड़ से खीर खाया जाता है। चावल का पिठ्ठा और घी लगी रोटी भी खाई प्रसाद के रूप में परिवार में वितरीत की जाती है।
तीसरा दिन (सूर्य षष्ठी) दो नवंबर शनिवार
सूर्य षष्ठी पर सूर्य देव की विशेष पूजा की जाती है। इस दिन बांस की टोकरी में प्रसाद और फल सजाए जाते हैं। इस टोकरी सभी व्रती सूर्य को अर्घ्य देने के लिए तालाब, नदी या घाट आदि पर जाते हैं। स्नान कर डूबते सूर्य की अर्घ्य देकर आराधना की जाती है।
चौथा दिन (समापन) तीन नवंबर रविवार
कार्तिक शुक्ल पक्ष की सप्तमी को उगते सूर्य भगवान की पूजा कर अर्घ्य दिया जाता है। भगवान भास्कर से परिवार के मंगलकामना के लिए आशीवार्द मांगकर घाट पर प्रसाद बांट कर छठ पूजा संपन्न की जाती है।